मसान का फूल और अन्य कहानियां
अंतर्भारतीय पुस्तकमाला
मसान का फूल और अन्य कहानियां
सच्चिदानंद राउतराय
अनुवाद शंकर लाल पुरोहित
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
. आवरण : जतिन दास की पेंटिंग पर आधारित।
[90] ७-23/-]5/0-6
पहला संस्करण : 95 (शक 97)
मूल (0 सच्चिदानन्द राउतराय
: हिन्दी अनुवाद 8 नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया,।995
(आाशिंखवा ॥/6 : (३४भााव३ 3 0 #ाएशा५१३ (78]043 ((आ70)4/ का वा।ण! - ३४३ 4३ ॥00] #ण /वा५३ 4३9 9शा (राववीं)
रू. 40.00
निदेशक, नेशनर्ल बुक ट्रस्ट, इंडिया ए-5, ग्रीन पार्क, नयी दिल्ली-006 द्वारा प्रकाशित
कया-क्रम
भूमिका
मसान का फूल मृत कुई अंधारुआ राजकुमार रिक्शावाला दारोगा का क॒त्ता टामी
मार्टी का ताज कोई नहीं
हाथ
कहानी नहीं अंगुली
राजा, रानी और कुत्ता बंदर
गोह
पंडितजी की मृत्यु सूरज का सातवां घोड़ा निःसंग प्रतिमा रंगलता
जंगल
जागीर
समाधि भिन्न-देशीय गवाही
सात
]07 ]4 ]2] 206 29 33 36
छ्ह
पापी
पद्मबीज
वागर्थ
विसर्जन
सहस्न शैया की नायिका एक पैसा लेखक-परिचय
कथधा-क्रम
]75 ]60
भूमिका
ओडीसा में कहानियों की परंपरा काफी पुरानी है। परंतु भारत की अन्य भाषाओं की तरह ओड़िया भाषा का साहित्य भी शुरू में काव्य पर आश्रित था। अतः कहानियों को छंद- मधुर होना पड़ता था । इस कारण ओड़िया तिपि के प्रचलन के कोई छह सौ वर्ष बाद जाकर कहानी छंद की बेड़ियों से मुक्त होने का साहस कर पायी। अठारहवीं सदी में ब्रजनाथ बड़जेना ने 'चतुर विनोद' नामक विशाल कथा-संकलन की रचना करके यह साहस दिखाया । परंतु 'नीतिविनोद', 'प्रतिविनोद', और 'रसविनोद'--इस तरह चार भागों में विभक्त कहानियों का समावेश भी सुमधुरता का मोह नहीं छोड़ सकी । शायद कहानी सच रही होगी, उसमें किसी आविष्कार या उन्मोचन का आनंद मित्र सकता है--ऐसा मनोभाव शायद कथाकार को तत्कालीन समाज में प्रेरित नहीं कर पाता था, अतः उस दिशा में विशेष प्रयत्न करने का कष्ट नहीं करता था।
मगर गद्य में लिखी होने के कारण हर कहानी को लघु काव्य कहना क्या समीचीन होगा? आधुनिक कथा की परिभाषा कई प्रकार से की गयी हैं। मेरे विचार से उसमें कम-से-कम टो बातें अवश्य होनी चाहिए--(]) इसका दायरा 'छोटा' कहा जा सके, इसकी गठन-शैली इस प्रकार केंद्रित व संश्लिष्ट हो कि किसी सचेतन पाठक के मन को जीत ले, किसी नये भाव या चिंतन की भभक पैदा करे, चाहे वह थोड़ी देर के लिए हो। (2) इसका यह मतलब नहीं कि वह जिद्दी नन्हें बालक को सुला दे अथवा लाइली राजकुमारी का मन बहला दे । बौद्धिक आनंद प्रदान करना ही इसका मुख्य उद्देश्य है। अतः प्रौढ़ पाठक ही इसका प्रधान ग्राहक है। इस कारण मनोरंजन इसका आवश्यक आवरण भर है, प्राण नहीं।
आधुनिक कथा की इस मूल परिभाषा के अनुसार सन् 898 में प्रकाशित फकीर मोहन सेनापति की कहानी रेवती' को प्रथम कथा कहा जा सकता है। वे सिर्फ आधुनिक ओड़िया उपन्यास के जन्मदाता ही नहीं अपितु ओड़िया कथा के आदि-सृष्टा और पथप्रदर्शक भी थे।
आश्चर्य की बात है कि यह नवजात शिशु किसी शिशु जैसा लगता ही नहीं। उसका यह प्रथम उच्चारण जरा भी अबोध्य नहीं लगता। हां, धरती पर आते ही रो पड़ा है, पर उसकी रुलाई का स्वर स्पष्ट है, उसका व्यक्तव्य एक निर्मम जैविक तथा सामाजिक यथार्थ का संवाहक है। यह यथार्थ कुंवारी कन्या रेवती के पढ़ाई करने के स्वप्न और अंकुरित
आठ मसान का फूल और अन्य कहानियां
प्रेम को एकाकार कर समूल नष्ट कर देता है। “री रेवती, री रेवती... री आग... री चूल्हा...” बुढ़िया दादी की यह भर्त्सना उसकी अंतिम साँस तक, एक साथ उसके अंधविश्वास और विधाता का अभिशाप लगता है। ऐसी एक अदभुत त्रासदी, जो प्राचीन ग्रीक ट्रैजेडी की तरह एकदम अकारण है। मानो जन्म से चुलबुली ओड़िया बाला को सुख-स्वप्न देखने का कोई अधिकार नहीं। ओड़िया साहित्य में यह एक प्रचंड और विस्मयपूर्ण घटना है।
फकीर मोहन के बाद अनेक रचनाकार सामने आए। उन्होंने अनेक उल्लेखनीय कहानियां लिखीं, किंतु कहानी का रचना-कार्य अचानक मंद होता गया | कम-से-कम कधित भाषा की शक्ति और संकोचहीन यथार्थ की दृष्टि से; हालांकि क्रमशः पत्र-पत्रिकाओं के प्रचलन के बाद कहानी काफी लोकप्रिय विधा बन गयी। इस दिशा में 'उत्कत् साहित्य' और 'मुक॒र' जैसी पत्रिकाओं की भूमिका सदा स्मरणीय रहेगी।
इस सदी के तीसरे-चौथे दशक से ही कहानी को बौद्धिक स्तर पर एक विशेष मर्यादा मिल चुकी थी। 'युगवीणा', 'सहकार', 'डगर', “आधुनिक” आदि पत्रिकाओं की भूमिका द्वितीय महायुद्ध की पृष्ठभूमि में स्पष्ट दिख रही थी। शीघ्र ही स्वाधीनता मिलने की आशा और नाना बाधाओं के बावजूद स्वतंत्र ओड़ीसा राज्य का स्वाभिमान लाहित्यकारों के लिए प्रेरणा का स्नोत था। इसके फलस्वरूप कथा-साहित्य में घनिष्ठ होते सामाजिक संबंध और धीरे-धीरे सिर उठाती व्यक्ति-चेतना--दोनों को वास्तविक स्थान मिलने लगा। इस समय के प्रतिभाशाली कथाकारों में कालिंदीचरण पाणिग्राही, राजकिशोर राय, राजकिशोर पटनायक, गोदावरीश महापात्र, नित्यानंद महापात्र, कान्हचरण महांती, गोपीनाथ महांती और सच्चिदानंद राउतराय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। कालिंदीचरण का धीर व संभ्रांत मानवीयता का स्वर, भगवती चरण के पैने और गोदावरीश महापात्र का रसाप्लुत विद्वूप, नित्यानंद महापात्र की भावनामय तथा राजकिशोर पटनायक की विश्लेषणात्मक मानसिकता सामान्य मानव एवं पीड़ित आदमी के सुख-दुख को रूपायित करने में विशेष सफल हुई है। परंतु जैसी यथार्थ की दीप्ति पाठक मन पर न केवल अधिकार जमाती है बल्कि उसे अकथनीय कष्ट देती है, नोवेल विजेता नादिन गडीमोर के शब्दों में-'कागज को स्याही छेद देती है”, उसे कहानी के माध्यम से इधर के दो कथाकारों ने प्रतिष्ठित किया। वे हैं--सच्चिदानंद राउतराय और गोपीनाथ महांती | सच्चि बाबू ने संतुलित परंतु निस्संकोच कथा कही और गोपीनाथ महांती ने उफनते भावावेग को लेकर यथार्थवादी कथा की रचना की। इससे आधुनिकता का जो नया क्षितिज उद्घाटित हुआ, अगर कहें कि स्वातंत्र्योत्तर सारे कथाकार उनके विशेष कृतज्ञ होंगे, तो असत्य नहीं होगा।
सच्चि बाबू ने सिर्फ सत्रह वर्ष की उम्र (932 ई.) में 'टामी” शीर्षक से सरल परंतु मार्मिक कहानी लिखी, जो उसी उम्र के किसी प्रतिभाशाली कथाकार के लिए ही संभव है।
टामी एक कुत्ता है। इसकी जीवन-यातना ही इस कथा का विषय है। कहानी पढ़ने
भूमिका नौ
पर लगता है कि लेखक होने के नाते ही, वे टामी के इतने अंतरंग हो पाये हैं और उसकी वेदना को इतनी निकटता से दिखा पाये हैं, मानो स्वयं भोग रहे हों। वरना वे शायद विषाद-करुणा में भीग जाते, स्थूल निष्ठुरता का इतना सूक्ष्म ब्यौरा देना जरूरी नहीं समझते । आंखों देखा विस्तृत विवरण सरल और स्पष्ट भाषा में बेलाग देते हैं, जिसमें निष्ठुरता दो ट्क होकर उभरने को बाध्य है भले ही वह कितनी वीभत्स क्यों न लगे। मगर कितने साहित्यकार ऐसे “गंदे”, गैरसाहित्यिक मार्ग से होकर गुजरना पसंद करेंगे? जैसे-बूढ़े रसोइये ने जलती लकड़ी लेकर उसके माथे पर दे मारी। टामी का माथा जल गया। चोट से सिर भी फट गया। खून की धार बह निकली । रसोई का सफेद फर्श उस लहू से लाल हो गया। इससे आगे भी है। माला फेरती दादी मां का भी उचित सहयोग है। टामी की चीख-पुकार सुनकर वे दौड़ी आती हैं। रसोइये को लंबा आशीष देकर कहती हैं--“बहुत अच्छा किया, बेटे, तेरी लंबी उमर हो! कुलखनी क॒तिया तो उठने-बैठने ही नहीं देती । दो बार मेरी पूजा की सामग्री नष्ट कर डाली ।” इसके बाद दादी मां से साहस पाकर रसोइये ने उसके फूटे सिर पर अपने फील पांव से मुटियाये पैर को दे पटका। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। घर-बार में ऐसा होता रहता है। मगर इसका वर्णन हमें परेशान कर रहा है, क्योंकि साधारणतया हम इस तरह की कृत्सित निष्ठुरता को अपनी भावना के अंदर टाल जाते हैं। पर यही तो है वास्तविक चित्रण जिसमें कुछ जघन्य है, कुछ वीभत्स ह और इसलिए कुछ तथाकथित अश्लीलता रहना जरूरी है। क्रिशोर कवि सच्चि राउतराय उसको परवाह नहीं करते |
इस तरह की बेपरवाही का भाव कम नहीं हुआ अपितु बढ़ता ही गया उनकी तरुणाईं में, परवर्ती जीवन में | मुझे लगता है कि विप्लवी कवि ने जिस भावावेग की अग्निशिखा अपनी कविता में जलायी है, उसका ईंधन कैसा है, इसकी सूचना उनकी तरुणाई की कुछ अविस्मरणीय कहानियां ही देती हैं। 'मसान का फूल' और “अंधारुआ' जैसी कहानियों में 'टामी' का विश्वास भरा है। यथार्थ का चित्रण करने के लिए एक निर्मम समझौता-रहित आग्रह है। मानो वे कह रहे हैं-'देखो, देखो, आंख खोलकर देखो, जल्दबाजी मत करो, तब जान पाओगे कि हमारे समाज में अत्याचार कितना जघन्य है ओर कितना वीभत्स हो सकता है /” 'मसान का फूल” की नायिका एक लड़की की लाश है जिसे जलाने हेतु श्मशान घाट ले जाने के लिए एक भी व्यक्ति इसलिए आगे नहीं आता कि वह पाप-गर्भा होकर मरी है। उसे जलायेगा सिर्फ जगू तिवारी, क्योंकि दाह संस्कार में वह दक्ष है। उसमें कोई दया-माया नहीं है। वह मुर्दे को चीर देता है, कोंचता है, गर्भवती का पेट फाड़कर बच्चा निकाल दोनों को चिता पर लिटा देता है। एक पर जगह कम पड़े तो कोंचने की लकड़ी से बच्चे को तोड़-तोड़कर मांस का पिंड बना जलती लकड़ी के बीच ढूंस देता है। सधवा औरत की देह से गहने खींच लेता है। इसमें....पनीला खून बह आता है और लाश का चेहरा गीला हो जाता है-यह सारा दृश्य वीभत्सता के साथ पाठक को झेलना पड़ता है।
दस मसान का फूल और अन्य कहानियां
बेचारी कुंवारी कन्या की मृत देह को भी इतनी दुर्दशशा भोगनी होगी। उसकी कल्पना में अंतरात्मा रो ही नहीं उठती, बल्कि चीखे बिना भी नहीं रहती। हालांकि 'टामी' कहानी में वे तब सदय हो जाते हैं जब टामी को बच्चे होते हैं, उसके नन्हें-नन्हें पिल्ले उसकी गोद में सोये हैं। 'मसान का फूल” में बहू का चेहरा फूल जैसा दिखता है, जगू तिवारी का मन भी पिघल जाता है। वह नाक का गुना तोड़ नहीं पाता। पर मानवीयता का जरा-सा परिचय समाज की निष्ठुरता व अन्याय को क्षमा नहीं कर पाता। लेखक का भी यही उद्देश्य लगता है।
परंतु, 'अंधारुआ' में गोहत्या करने वाले पहली को प्रायश्चित करना पड़ा । जीभ रहते तुतलाना पड़ा, द्वार द्वार ठीकरा लिये फिरना पड़ा। शुद्ध होने के बाद भी जाति-बिरादरी को भोज न देने के कारण जाति से निकाल दिया गया और सर्वस्व गंवाकर मर गया। किसी अंतिम बात का आश्वासन भी नहीं....है तो सिफ समाज का क्रूर उपहास। पहली की विधवा, पीहर से आए जो दस रुपये आंचल में बांध रखे थे, खोलकर मुखिया के हाथ में पकड़ा देती है, सब के पांव पड़ती है। ब्राह्मण व अन्य जात-बिरादरी के लोग खुश होकर पहली के मुरदे को आशीष देते हैं। दुराचारी समाज की शठता और कितनी दूर जा सकती है?
तो नग्न यथार्थ का चित्र क्या विप्लव के लिए यथेष्ठ है? इसमें क्रोध तो आयेगा, मगर संस्कारों से मिला भय और भक्ति क्या फिर भी मन में चिपके नहीं रहेंगे कि जो भी हो वे हमारे राजा हैं, हमारे जमींदार हैं, हमारे गुंसांई हैं....आदि । अतः उन विग्रहों को खाली और थोथा दिखाना होगा ताकि नीचा और छोटा आदमी भी बिना दुविधा के उसे नीचे लुढ़का सकेगा। विप्लवी लेखक ने इसके लिए जो हथियार तैयार किया है उसका नाम है उपहास ओर ससोत्तीर्ण व्यंग्य । सच्चि राउतराय इसमें सिद्धहस्त हैं। युवावस्था से लेकर बढ़ती उम्र तक उन्होंने ऐसी कई कहानियां लिखी हैं जहां इस हथियार का प्रयोग किया गया है, लक्ष्य-भेद कर सके हैं। कुर्सी की क्षमता की बड़ाई कितनी असार और हास्यास्पद है, इसका नमूना दारोगा का क॒त्ता' में मिलता है। हाय, जिस सम्माननीय कुत्ते की शवयात्रा बड़ी धूमधाम से निकली है, उसी कुत्ते के मालिक, खुद दारोगा बाबू का शव उठाने के लिए फिर कितनी दौड़-धूप मची। 'राजा, रानी और कुत्ता” के निर्वासित राजा की धारणा है कि प्रजा अभी भी उसे याद कर रही है। परंतु महाराज को पता नहीं, कि उनका ठुकराया कुत्ता ही उनका अनुगत है, यहां तक कि उनका विश्वस्त नौकर नरहरि भी नहीं, जो विद्रोही प्रजामंडल का गुप्तचर है। अंगुली” कहानी में जमींदार की उदारता के पीछे जो नाटकीय छलावा है, अर्थात् अंगुली भी रुपये देकर खरीदी जा सकती है, उसका खून मामूली लाल पानी हो सकता है-यह अंतिम दृश्य हास्यास्पद होने के साथ-साथ स्पष्ट कर देता है कि वह आदमी. चतुर एवं ठग के अलावा कुछ नहीं है।
बाद में उनकी कहानियों में व्यंग्यात्मकता और भी सूक्ष्म तथा पैनी हो जाती है।-राजा,
भूमिका । ु ग्यारह
जमींदार वगैरह का तब तक जोर खत्म हो गया था, अतः उनके शिकार होते हैं समाज के आत्म-तुष्ट ऊंचे लोग, जो वास्तव में लुंज और दयनीय हैं। क्रमशः उनका व्यंग्य श्लेष और चकाचीौंध पैदा करने वाला होता गया, जोकि समकालीन कहानी की विशेषता है। इस क्रम में कई उल्लेखनीय कहानियां है। कहीं नंगा किया है 'गोधी' के ढोंगी बाबा को तो कहीं पंडित जी की मृत्यु” के अहंकारी पंडित को जो अपनी एक मजदूरिन के साथ यौनाचार की लिप्सा संभाल नहीं पाये। “गवाही” में भाड़े का गवाह अपने खोदे गड़टे में आप गिर पड़ता है। अंत में जान पड़ता है कि जिसके पक्ष में गवाही देकर यह कहा कि उसका स्वभाव एवं चरित्र पवित्र है, वह कोई साइकिल चोरी करे इसका सवाल ही नहीं उठता, वही उसकी अपनी साइकिल लिये जा रहा है। श्लेष के आधार पर इस कहानी की किसी भी आधुनिक कहानी के साथ तुलना की जा सकती हैं, क्योंकि यहां व्यंग्य का अस्त्र बूमरांग की तरह शिकार से शिकारी पर लौट आता है। व्यक्ति और समाज दोनों के सारे शून्य रूप साफ दिख जाते हैं।
यहां एक बात स्पष्ट कर देना उचित होगा। सच्चि बाबू कभी युवावस्था में नेता बने, मजदूर-नेता, उनका सामाजिक अभियान कितना भी उग्र रहा हो लेकिन उनकी कलात्मकता पर आंच कभी नहीं आयी, क्योंकि वे जान-बूझकर कहानी को उद्देश्यपूर्ण बनाते नहीं लगते । शायद उनका दृष्टिकोण है-उद्देश्य स्वतः ही अपना काम करेगा यदि कहानी यथार्थ और सुंदर बनी है, इसमें चाहे व्यंग्य हो या निर्भीक और शुद्ध कहानी कहने की चातुरी । विशेषकर अधेड़ उम्र में लिखी उनकी कहानियों में व्यक्ति-चेतना ही प्रमुख हो उठी है। जैसे “वंदर' कहानी में बूठे पद बाबू का दयनीय भ्रम है-जिस बंदर को बचपन में मार दिया था आज वह उन्हें चिढ़ाने लौट आया। 'सूरज का सातवां घोड़ा” की हिनहिनाहट सरल पंचानन बाबू को उनके दुःस्वप्न में चिढ़ा रही है। .. यह व्यक्ति-चेतना क्या सिफ परिणत जीवन की अनुभूतियों से उदभूत है या सामाजिक अस्तित्ववादी दर्शन द्वारा प्रभावित? दोनों बातें सच हो सकती हैं। पर मेरे ख्याल में यह आंशिक सच है। क्योंकि कथाकार सच्चि बाबू ने अपनी तरुणाई में भी कई कहानियां लिखी हैं जिन्हें रोमांसधर्मी कहा जा सकता है। पर इस रोमांस में न धुधंली कल्पना है और न भाव-सरलता है। यह भी. यथार्थ है, मगर करुण और हृदय-विदारक | 'मृत कुंई' में नाराज किशोरी का मान भंजन करने उसका साथी कमल तोड़ने जाता है। परंतु कमल सरकता जाता है और उसके प्राण लिये बिना नहीं छोड़ता | एक दूसरी कहानी 'राजक॒मार' में यात्रा (लोक-नाटक) का राजकुमार उस मुग्धा कुंवरि का राजकुमार नहीं रह जाता। वह चेचक में मर जाता है, रास्ते पर गिरा पड़ा है और कुंवरि के सामने ही कोवे उसकी आंख नोच डालते हैं। यह है दशा आदमी की और उसके प्रेम की। 'माटी का ताज” भी एक बेजोड़ रोमांसधर्मी कहानी है, जिसमें मन के अंदर बचपन का सरल-सुंदर प्रेम मर जाता है। बस माटी के 'ताजमहल' की प्रत्यक्ष भूमिका न होने पर भी उसकी छाया तो दोनों पर पड़ी है।
बारह मसान का फूल और अन्य कहानियां
दोनों भिन्न धर्म के परिवार में जन्म लेकर आये हैं, अत: सामाजिक दीवार स्वतः आड़े आ जाती है।
कवि सच्चि बाबू की काव्य-प्रतिभा ही उन्हें अखिल भारतीय प्रतिभा प्रदान कर चुकी है। संख्या की दृष्टि से भी उनकी कहानियां बहुत अधिक नहीं हैं। फिर भी कथाकार सच्चि बाबू इतने उच्च स्तर की और इतनी विविधतापूर्ण कहानियों की रचना कर आधुनिक ओड़िया कथा साहित्य के एक प्रधान पथप्रदर्शक बन गये हैं कि यह विस्मयजनक बात है। इस संदर्भ में उनके साहित्य की एक और दिशा की सूचना देना समीचीन होगा। उसमें स्पष्ट है कि अस्तित्ववादी उद्वेग हो या रोमांटिक करुणा, वे हर प्रयोग की चुनौती स्वीकार करने में सक्षम हैं । वरना सन् 955 में 'चित्रग्रीव” जैसे उपन्यास की रचना कैसे संभव होती जिसका कथानक इतना बिखरा है पर बौद्धिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इतना संपन्न है कि उसे उल्लेखनीय 'ऐंटी-नावेल' का प्रयोग कहा जाता है।
भूमिका के सीमित क्षेत्र में सच्चि बाबू की सारी कहानियों पर टिप्पणी करना संभव नहीं। फिर भी मुझे विश्वास है कि इस संकलन की कहानियां उनके कथाकार के स्वरूप का सही परिचय दे सकेंगी, देश के पाठकों में उनके जीवन और साहित्य के प्रति अधिक निकट होने के लिए अधिक उत्सुकता भर सकेंगी।
-किशौरीचरण दास
मसान' का फूल
पोड़ा बसंत शासन (त्राह्मणों का गांव) का जगू तिवारी कीर्तन करता है, मृदंग बजाता है, गांजा पीता है और मुरदा फूंकता है, मुरदों को कंधा देने वालों के रूप में इस इलाके में उसका ख़ूब नाम है।
मुरदा जब चिता पर सें सें करता है या उसकी टांग ताव खाकर ऊंची निकल आती है, अथवा पेट की अंतड़ियां जलकर उनसे पानी रिसता है तो आग नहीं सुलगती, तब दूसरे मालभाई” जगू की ओर देखते हैं, उसकी सलाह लेते हैं।
गांजे के नशे में लापरवाही से जगू कुछ दूर बैठा होता। ऊंघते हुए हड़बड़ाकर खड़ा होता, और फिर अरथी में से कोई तीन हाथ का बांस खींच लेता है। “मार... ले... दे...”, कहकर बांस को लाश पर तीन-चार मार देता।
या तो मुरदे का सिर चूर हो जाता, या फिर दही निकलकर थोड़ी जगह में आग दब जाती। उठी हुई टांग लाठी की चोट से मुड़ जाती और लकड़ी के बीच में गिर पड़ती या पेट फटकर चौड़ा हो जाता अंतड़ियों में जीभ लपलपाती आग घुस जाती । देखते-ही-देखते सब जल-भुनकर राख हो जाता!
घुटने भर राख, छाज, बुहारी, हांडी, ठीकरे और फटे-पुराने चिथड़े से भरा पड़ा है मशानपदा* | वहां नख, बात, हड्डियों के छोटे-बड़े टकड़े एवं इधर-उधर की गंदगी भी फैली हुई है।
जगू तिवारी मजे में घर लौट आता । पोखर के घाट पर तेल लगाते लगाते जांघ पर हाथ मार आराम से कहता, “ठाकरजी की दया से काम ठीक-ठाक निपट गया।”
गांव में जब हैजा-वैजा फैलता, माता निकलती तो मरनेवालों की तादाद अधिक हो जाती। तब गांव में जगू तिवारी की खातिर बढ़ जाती । सब आकर उसकी खुशामद करते। कोई आंख से आंसू बहाता, कोई टेंट से पैसे निकालता, कोई ठोड़ी छूकर कहता, “भैया
]. श्मशान । 2? शव-वाहक। 3. श्मशान-द्षेत्र।
१ मसान का फूल और अन्य कहानियां
बाबू!” जगू तिवारी गंभीर होकर सबके निहोरे सुनता। परंतु जवाब में वह तुरंत कुछ नहीं कहता।
“कल रात से मुरदा घर में सड़ रहा है।”
“घर में बहू कब से मरी पड़ी है, एक कोने में....”
तरह तरह के निहोरे जगू से किये जाते।
जगू अपने प्राप्य के बारे में किसी का कोई लिहाज नहीं करता। पैसेवाला हो तो कान के बाले, नाक का कांठ... और गरीब घर का हो तो पांव की मच्छी, चांदी की अंगूठी-जगू को दक्षिणा में मिल जाता। मुरदे को चिता पर रखने से पहले उसकी देह अच्छी तरह टटोल-टटोलकर देख लेता-कहीं कोई गहना-गांठी है या नहीं? होता तो निकालकर रख लेता। कभी कभी मुरदे के नकफूल या कान की बाली आसानी से न निकलती तो, जगू तिवारी झुंझलाकर दांत भींच लेता, खींच-तानकर मुरदे के कान, नाक से वह गहना निकालता, इसमें मुरदे की नाक फट जाती, कान से नीला नीला, पनीला खून बहता और चेहरा गीला हो जाता, मगर जगू उधर कोई ध्यान नहीं देता। यह तो रोज की आदत हो गयी है, एक तरह की ऊपरी वृत्ति बन गयी है। इस तरह करते करते वह पत्थर का हो गया है।
किसी गर्भवती औरत का मुरदा होने पर एक रुपया लिये बिना जगू अरथी को कंधा नहीं देता। अपने प्राप्य में जरा भी मीन-मेख करते देखता तो कह देता, “लाश बासी' पड़ी रहेगी, मुझे कुछ कहना मत ।” दूसरे मालभाइयों को भी सिखा-पढ़ाकर अड़ जाता।
रुपया मित्र गया तो फिर ढोल की थाप के साथ साथ कदम बढ़ाता--'राम नाम सत्य है” जोर से बोलता हुआ जगू तिवारी ठाठ से आगे आगे चलता। ग्रेनाइट पत्थर सी स्याह देह पर सफेद जनेऊ के तार दूर से चमचमाते दिखते...। .
उसकी आवाज सारे गांव में छा जाती। बस्ती भर के औरत-मरद वहां आ जुटते। छोटे छोटे बच्चे घरों में जा छिपते, डर के मारे।
श्मशान में धोबी ने नहरनी से गर्भवती औरत का पेट चीर बच्चा निकाल अलग कर दिया तो जगू तिवारी ने दो चिता सुलगाकर मां-बेटे दोनों को चित लिटा दिया। ऐसे मामलों में जगू कभी कभी दोनों को एक ही चिता पर पास पास लिटाकर आग लगा देता। एक पर जगह न होती तो कोंचने की लकडी से शिशु को तोड़-मरोड़कर जलती लकड़ियों के बीच घुसेड़ देता या ऊपर फेंक देता।
इस तरह जगू तिवारी अपने खेत में पैदा होनेवाले कुछ बोरे धान के अलावा कभी कभी दो पैसे ऊपर से कमा लेता, अपना पेट भरता । इतने में ही घर चलाता, लेन-देन करता और शादी-ब्याह का काम भी चला लेता।
]. एक लोक-विश्वास है कि दिन में मरे तो सांझ से पहले और रात में मरे तो भोर से पहले, मुरदे को जला देना चाहिए। वरना मुरदा बासी हो जाता है और मुरदे को बासी करना बहुत बुग़ और पाप माना जाता है।
मसान का फूल 37
गांव में कोई उसे मुंह खोल कुछ नहीं कह पाता । जगू के अलावा दूसरा पक्का जानकार बाम्हन मालभाई नहीं है।
कोई जगू के प्राप्य में कमी करने की चेष्टा करता, तो जगू “काम की तुलना में मेरी मांग कुछ नहीं,” कहकर तरह तरह के तक रखता। अपनी बहादुरी दिखाने वाली पुराने बातें कहता-''मेरे जैसा है दूसरा, मुरदे फूंकने वाला?” इस बात पर वह खूब गर्व करता।
पिछले बरस नरसिंह मिश्र की औरत को कैसे अचानक मूसलाधार बरसते पानी में भी जला आया। आते समय सातगछा बगीचे के छोर पर एक गरदनमरोड़ मर्दल के चक्कर में पड़ गया । उसके बाद पौष की ठंडी रात में जलोदर से मरे, नाथ ब्रह्मा को जलाते समय , मुदे के पेट से मटके भर पानी निकला, चिता बुझ गयी। फिर भी जगू कैसी चतुराई से इतने कठिन मुरदे को जला सका, यह पुरानी कहानी है--बह खुद रस ले-लेकर बताया करता है कभी कभी |
मुरदे जलाने की विद्या में जगू तिवारी का अनुभव और उसकी गहरी जानकारी की बात कोई भी ग्राहक घड़ी-आध घड़ी में बात करके जान जायेगा।
रोज जगू तिवारी भागवतघर में बैठकर अपने हिस्से की कथा सबको एक एक बार कह सुनाता। टप टप मेघों भरे मौसम में उसके श्रोता उसे घेरकर बैठ जाते हैं। गांजे का दम लगाकर पहले जगू गला खंखारता है। श्रोता समझ जाते कि अब कहानी शुरु होगी।
“एक बार कोई अच्छी सी लाश जलाकर लौटते समय की बात है--मुक्ताझर के पास घने आम की डाल पर बैठी कोई भूतनी अंतड़ी जलाकर अपने बच्चे को सेंक रही थी.... ।” किसी निपुण चित्रकार की तरह वर्णन कर रहा था जगू। श्रोता सहमे-सिकुड़े दीवार के सहारे बैठे हुए सुनते।
इसी तरह उस छोटे से गांव में जगू तिवारी का जीवन कटता। असौज की रात सांझ से क॒छ मेघ घिर आये हैं। जगू तिवारी का सिर दुख रहा था शायद। दोनों कानों के पास माथे पर थोड़ा सा कली-चूना लेपे हुए सिर को कनटोप से ढांपकर बाहर चबूतरे पर बैठा 'हरिवंश' सुन रहा था।
गांव में रोना-पीटना सुनायी दिया। पड़ोस की बस्ती वाली दुकान से पान-जर्दा लिये कोई लौट रहा था। उसी ने खबर दी कि जटिया मौसी के यहां उसकी बहू मर गयी है।
देखते देखते सारे गांव में हलचल मच गयी । “चलो, अब दो पैसे की आमदनी होगी ।” जगू तिवारी को कुछ राहत मिली।
कई लोग कई बातें कह गये हैं आकर | बस्ती की औरतें दस बातें फुसफुसाने लगीं । किसी ने कहा-“पाप का पेट था ।” किसी और ने कहा-- “पेट खाली करने को कोई दवा-दारू खायी थी। जहर फैल गया सारे शरीर में।”
जगू तिवारी गुमसुम सब सुनता रहा। मुंह मोड़ लिया। जात जाने के भय से इतना बड़ा रोजगार....! सारी आशा टूट गयी।
74 मसान का फूल और अन्य कहानियां
जटिया मौसी का दुनिया में कोई नहीं-बस सास-बहू दो ही हैं। बहू आने के महीने भर बाद बेटा कलकत्ता गया-पैसा कमाकर उधारी चुकाने के लिए। तीन बरस हुए कोई खोज-खबर नहीं। पहले तो खत-वत भेज दिया करता था, इधर साल भर से वह भी बंद है। कलकत्ता से उस गांव को लौटने वालों का कहना है-वह तो वहां कहीं एक औरत को लेकर कलकत्ता में ही मटियाबुरज में रहता है। घर पर बहू अकेली । आज वह तो चली गयी-पर जिंदगी भर का कलंक लाद गयी बुढ़िया के माथे पर। बुढ़िया बाम्हनी सिर पर हाथ रखे बैठी है।
उसकी हालत दिन भर भी बखानें तो पूरी नहीं होती।
गांव के कुछ बुजुर्ग लोग निकले और बात को संभाल लिया। “बड़े-बूढ़े लोग पहले बहू को काबू में रखने क्यों नहीं आये आगे ”” जटिया मौसी गाली-गलौज करती रही । आखिर फैसला हुआ-लाश को तुरंत निबटाना होगा। अगर कहीं छाटिया थाने में खबर हो गयी तो बाम्हन जाति का नाम ही डूब जायेगा। फिर वे भी तो यहां बहू-बेटी लेकर रहते हैं।
जटिया मौसी ने दांतों में तिनका रखकर सबको प्रणाम किया, अनेक बार धन्यवाद किया कि उसे उस घोर विपदा से बचा लिया । बार बार प्रणाम करके सबके प्रति कृतज्ञता जतायी। |
मुरदे को कंधा देने के लिए गांव से तीन-चार युवक खुद-ब-खुद आगे आये। पुवाल की रस्सी बनायी गयी। अरथी सजी, छाज, ठीकरा, छींका, बुहारी, लकड़ी-सब ले आये दरवाजे पर। मुरदे की देह कपडे से ढांपफर अरथी बांधी गयी। मगर एक पक्का मालभाई न हो तो कैसे चलें? आध घंटे में लाश खतम करनी होगी। वरना खतरा है। थाना बाबू को खबर हो गयी तो गांव भर के लोगों को बांध लिया जायेगा। गांव में चुगली करने वालों की कोई कमी नहीं।
मुखिया ने कहा-“तिवारी जी को बुलाओ । तिवारी के बिना इतना बड़ा काम ठीक-ठाक और जल्दी नहीं हो पायेगा ।”
जगू तिवारी को खबर दी गयी। मगर वह नाराज। एक ही जिद थी-“'पाप का पेट लिये मरी है। में उसे छूऊंगा?”
सब ने समझाया-बुझाया। मगर वह अपनी बात पर डटा रहा पहले। .
आखिर बड़े-बूढ़ों ने जाकर समझाया, बहुत कहा-सुना तो जगू फिर मुरदे को कंधा देने को राजी तो हुआ, मगर पांच रुपये नकद मिलने पर--“हां...इसके बिना इतना बड़ा पाप कौन ढोयेगा?”
उसने साफ साफ कह दिया। जटिया मौसी के घर का कोना कोना खोदा गया, जो कुछ निकला सो लकड़ी, किरोसिन, धोबी-नाई के लिए ही पूरा नहीं पड़ा। आखिर फैसला हुआ-“बहू की नाक में जो फूल है, जगू तिवारी को मिलेगा ।'
मसान का फूल
| है|
जगू तिवारी राजी हो गया और उसने आवाज लगायी-“राम नाम सत्य है!”
'मसानपदा, मैली-कुचैली जगह । हांडियां, लकड़ी के टुकड़े, खोपड़ियां, छाज, ठीकरे, कोयले और बांस के टुकड़े। चारों ओर एक मुर्दनी सी छायी हुई है।
बीच में पथ-श्राद्ध/ हुआ। इसके बाद मुरदे को ले जाकर लकड़ियों क॑ टेर पर चित लिटाया गया, चेहरे पर से कपड़ा हटा दिया गया।
नाक पर चवन्नी भर का सोना! लालटेन की रोशनी में जगू तिवारी ने देखा-फूल मुरदे की न'्म पर चमक रहा है।
बादल उंट गये थे। धीमी धीमी चांदनी पड़ रही थी मुरदे के फीके पड़े सफेद चेहरे पर।
साथ आये मालभैया ने कहा--“अरे, तिवारी जी! जल्दी जल्दी काम सुलटाओं। कहीं पुलिस को भनक पड़ गयी तो फंस जायेंगे सब ।”
जगू ने फूल को तोड़ने के लिए हाथ आगे बढ़ाया । उसने देखा कि छोटी बहू का चेहरा जैसे कोई चांदनी में अर्धमुरझाया कुंई का फूल हो। चेहरे के चारों ओर घिर आया था घने घुंघराले बातों का जंगल । ठीक वैसे ही, जैसे आकाश में चांद के पीछे काले मेघों की घनी छाया हो जाती है। द
बहू के चेहरे पर तैर रहा है मुरझाये फूल का लावण्य! उसके बिखरे बालों पर चांदनी की लहरें एक एक आती-जाती दिख रही हैं।
जगू ने हाथ वापिस खींच लिया। आकाश के फीके चांद की ओर देखा।
ऐसे कितने ही मुरदे जलाये हैं जगू ने। कभी मन में ऐसा तूफान नहीं उठा। इस छोटे से सुंदर मुखड़े को असुंदर करूं?” पर वहां वह जरा सा गुना खूब चमक रहा है। इस नारी के बारे में कितना कुछ नहीं सोच गया वह मुरदा फूंकनेवाला जगू।
तभी जगू को याद आया : यह बहू थोड़े ही दिनों में मां बन जाती। और कितना कुछ होती,.... मगर कुछ न हो सकी।
दोष किसका है? |
छुपे छुपे चांदनी के अथाह सागर के बीच, सूने मरघट की नंगी छाती पर लेटी है एक अधखिती नारी | अकेली! सच्च 45 एक दम अकेली है| लाश ढोनेवाला जगू तिवारी निरख रहा है-सच, कितनी अकेली! ” ” के, एक घर में बंद जीवन को बदलकर, जरा कुछ और तरह जीने का स्वाद अनुभव कः 7र ही, शायद आज वह मसान की लाश बन गयी है। बहू के स्याह पड़ते चेहरे पर अनंक दिन जीने की भूख दिख गयी।
जंगू को देर करते देख साथी मालभाई झुंझला गये। धमकाकर बोले, “यों देरी करोगे
]. मरघट के रास्ते में किया जाने वाला पिंड-दान। 2. नाक का फूल।
6 मसान का फूल और अन्य कहानियां
तो हम मुरदा छोड़कर चले जायेंगे। पुलिस आयेगी तो तुम्हीं संभालना। लो अब जल्दी... गुना निकालो....काम आगे बढ़े। वरना हम आग तगाते हैं। गुने के लिए तो मरे जा रहे थे तब। अब हाथ नहीं चलता। क्यों? ह
तब जगू तिवारी का सपना टूटा, लाज से भर गया वह। अंदर की कमजोरी छुपाने के लिए कहा, “छिः! यह मुरदे का गुना घर में भरूंगा? वह तो पाप का पेट....”
संगियों ने पूछा, “तो नहीं लेंगे? आग लगाते हैं?”
जगू ने लापरवाही में कहा, "हां, लगा...दो.... | ठीक से देना...जलाकर इसे राख कर दो।”
हुत् हुत् आग जल उठी। लपलपाती जीभ चाटती गयी। बहू की मांसल देह आग में सीझ काली पड़ गयी। और फिर पर्त-दर-पर्त बुलबुले की तरह फूटने लगी।
जगू तिवारी जलती लाश को देखता रहा।
दूर कचले के झुरमुटे पर उल्लू, गीध और चीलों की जमात बैठी थी। दूर से खेत में उस पार से तैर आयी सियार की कानफोड़ भूख भरी चीख।
गंदगी-अंधकार, हाड़, राख, कोयले भरा मसान | चिता में से कोई सड़ी-गंदी हवा आकर चारों ओर भर गयी।
संगियों ने जगू से कहा, “उस छिनाल के गहने लेकर घर में नहीं गये, अच्छा किया। अमंगल हो जाता। देखा कैसे छटपटाकर मरी है! अपने पेट के शिशु को मारने चली थी, ख़ुद नहीं मरती क्या? धर्म क्या दुनिया में नहीं रहा?”
उस जली राख में आंख फिराते फिराते चिढ़कर जगू बोला, “बस करो, बस करो! दूसरों का विचार तुम न करो। आदमी क्या आदमी को ठीक से समझ सकता है?”
मृत कुंई
चिलचिलाती दुपहर!
सांय सांय हवा। फिर लू चल रही। उसमें पेड़-पौधे, लता-पत्तर, झाड़-झंखाड़ गरमी में सब सीझकर लरज गये। झुरमुटों वाली पथरीली जमीन की छाती चीरती हुई आ रही है टूर से किसी कपोत की आवाज।
तंटिकटझर के पास एक आम के तले बैठा लोचन टीन पीट-पीटकर चिड़ियां उड़ा रहा है। आगे खेतों में पीले धान की बातियां तैर रही हैं। खुली हवा की लहरें।
लोचन के एक हाथ में ताड़पत्तों का छाता, जिसमें खोंसी गयी है भरत पंछी की पांख, और झूल रहा है पतला धागा। बीच बीच में वह ढोल बजाकर गीत गा रहा है-
“उड़ि उड़िगला गेंडातिया, झाड़िदेला पर। तु छाड़ितु बापा-भाई, मुं छाड़िली घर।””
“वाह... वाह...! खूब कहा!... एक आम तोड़!
लोचन गीत बंदकर चौंक गया। मुड़कर देखा। कांसे का बड़ा कटोरा लिये सुंदरी खड़ी है। पूछा-''ऐं, इस समय किधर?” उसने बताया, बापू के लिए खाना लायी थी।
सुंदरी फटी साड़ी पहने थी। माथे के बिखरे बाल बाहर आंकर इधर-उधर उड़ते गले में गुंजा की माला में छुप गये थे।
लोचन थोड़ी हंसी करने को बोला, “कहां, मेरे हाथ क्या आम तक जाते हैं?”
“मरदूद, तू पेड़ पर चढ़ना नहीं जानता?”
“वाह वाह, कानखजूरे मेरी सारी देह फ॒ला देंगे।”
लोचन को हैरान करने का मन नहीं हुआ सुंदरी का, कुछ सोचकर उपाय निकाता। बोली-“इतनी बात? एक निशाना चला ।” और वह आम की एक सूखी लकड़ी ले आयी कहीं से, “ले, एक बार इसे ही फेंक ।”
लोचन ने निशाना साधकर लकड़ी फेंकी। एक बार में पांच-दस आम टपाटप झड़
]. पोखर-तालाब में उगने वाला एक फूल। . 2. उड़ गया पंछी छोड़कर।. तूने छोड़ा बाप-भाई, मैंने छोड़ा घर।
8 मसान का फूल और अन्य कहानियां
गये। पेड़ पर बैठी चिड़िया किचर-मिचर कर उड़ गयीं।
सुंदरी एक अमिया दांत से काटती हुई खट्टे मुंह से बोली, “उई, ये तो बिलकुल स्वाद नहीं। मांकड़खिया पोखर के उस पार कच्चा स्वादी आम है। वो बहुत स्वादिष्ट है। उसका टुकड़ा मुंह में डाल लो, सात भात हजम कर देगा ।” ेु
लोचन समझ गया। मगर सुंदरी की बात पर चलने की हिम्मत नहीं हुई | वह जानता है, मांकड़खिया पोखरा यहां से कोस भर है। आने-जाने में घड़ी भर से कम नहीं लगेगा। इधर उसका मालिक सांमत दंत-मंजन करते हुए अभी इधर हाथ-मुंह धोकर आ पहुंचेगा।
बात टालकर बोला, “कल सवेरे थोड़ा तड़के आ जाना, उधर मांकड़खिया के आम तोड़ दूंगा।”
सुंदरी अमिया का चटकारा भरती हामी भर कर चली गयी, झूमी-झामती हुई।
फिर से लोचन टीन बजाता चिड़िया उड़ाने लगा-“हो हो हो!”
सुंदरी लोचन के आगे रोज कोई-न-कोई फरमाइश करती-कभी तता पर से गूंजा तोड़, कभी सूत की फांस बना छोटी मेंढकी पकड़। लोचन मालिक के घर का काम करते करते, जहां तक होता छोटी-मोटी फरमाइश पूरी कर देता।
लोचन और सुंदरी अड़ोस-पड़ोस में रहते हैं। रोज सुबह उठते ही एकनदूसरे से : भेंट-मुलाकात, हंसी-मसखरी, रूठना-मनाना। तो भी इस नेह में बढ़ते बढ़ते लोचन चौदहवें और वह ग्यारहवें बरस में पांव रख चुकी थी।
अगली सुबह सुंदरी बेर तोड़ने, साथ में अपनी सहेलियों--अपन्नी और सेवती को लेकर उधर गयी थी। पौ ठीक फटी भी न थी । नीम अंधेरा । गांव के छोर पर, छान पर बैठे चौकीदार तोमीज खां के मुरगे ने बांग दी-कुक्क ड़कू.....ऊ.....ऊ....ऊ....!
मांकड़खिया खेत में रखवाली करने की आज लोचन की बारी है। दातून चबाता चबाता, बगल में दो मुट्ठी भाजा' लेकर निकला था। कुछ दूर ही गया था कि कांटों पर पैर पड़ गया। लहू-लुहान हो गया। आज सुबह, पता नहीं, किस का मुंह देखा है।
खेत पर पहुंचा तो ठाकुर जाग गये थे। लाल लाल, हाल ही में जनमी बछिया की तरह, सूरज देव अचानक पहाड़ की ओर से आकाश में कूद आये। लोचन ने जीभ-छेली बनाकर मुंह साफ किया। भाजा निकाला, खा लिया। नाले का पानी पिया पेट भर। फिर रोज की तरह चिड़ियां उड़ाने लगा-हे हे हे!
घड़ी भर बाद सुंदरी आ पहुंची । बेर खाते खाते होंठ स्याह पड़ गये हैं। माथे पर खोंसे है फूलों का गुच्छा | गले की मात्रा कांटों पें उत्लकर लापरवाही में टूट गयी है। गला एकदम नंगा दिख रहा है।
“आम तोड़ देने को कहा था,” काले दांत दिखाकर पूछा सुंदरी ने।
. भुना हुआ चावत।
मृत कुई 9
लोचन ने उधर देख पूछा, “सुराईदार गरदन....सुंदरी !” उसके अंदर की शैतानी हो-होकर हंस पड़ी। “...सुराईदार गरदन। दही की हांडी....सेड़ली, पेड़ली....छि: !”
अपन्नी और सेवती हें-हैं कर हंस पड़ीं | सुंदी का गोरा चेहरा अचानक सुर्ख हो गया। गुस्से में भर वह लोचन को गाली देती जा रही थी। मगर खुद को एकदम संभाल लिया। फनफनाकर बोली--“'आम तोड़ दोगे या नहीं ? बोलो । मैं चली, ज्यादा नखरे निकालता है ?”
लोचन ने सुंदरी का गुस्सा देख लिया। चिटाने के लिए बोला, “'तू मुझे बदले में दो पैमली बेर देगी?”
सुंदरी के पास बेर थे ही नहीं। इसी बीच हाथ खाली हो गये थे। उसने खाली पल्लू झाड़ दिया उसके सामने।
लोचन ने हंसी में चिढ़ाकर कहा, “निगल गयी सब? तुझे कभी पूरा पड़ेगा?”
गुस्सा ज्यादा हो तो नाक में बोलने लगती है रुआंसी सी। सुंदरी का पारा चढ़ गया। भन्नाकर रुआंसे स्वर में कहा-“'अमिया नहीं देगा तो?....ठीक है।”
लोचन ने देखा, सुंदगी खफा हो गयी। स्वर बदल, नरम आवाज में खोला, “ना... ले... अभी देता हूं, जरा रुक। तू गुस्सा हो गयी ?” दौड़कर नीचे से सूखी लकड़ी उठायी और संवारा उसे।
अपन्नी ने अंगुली दिखाकर बता दिया, “इस सीध में जो आम दिखता है उसे झाड़ दो तो देखें!”
लोचन ने निशाना साधा। किंतु न आम ही झरा और न ही लकड़ी वापस आयी।
दूंढ-टांठकर एक और लकड़ी लाया। निशाना साधकर फेंकी, लेकिन इस बार फिर लकड़ी अटक गयी।
अपन्नी और सेवती हैं हें! हंस पड़ी। नाक में 'सें सा! करती सुंदरी भी हंस पड़ी।
लोचन का चेहरा लाल हो गया। आहत पौरुष और मान गुस्से में फूल उठे।
पागल की तरह दौड़ा। चारों ओर। मगर लकड़ी नहीं मिली। आखिर गुस्से में एक और थोथी लकड़ी फेंकी । उसमें लतर वगैरह लगी थी। सो ऊपर तक पहुंच ही न सकी। चार बार फेंककर भी आम नहीं झाड़ सका। उलटे ठोकर खाकर गिर पड़ा।
मौका देख रही थी सुंदरी, बदला लेने का। बोल उठी, “तेरे हाथ से जूं तो मरती नहीं, चला है निशाना लगाने! तुझे निशाना लगाना आता भी है? एक आम नहीं झाड़ सका, लाज नहीं आती?” :
लोचन ने जरा गुस्से में सुंददी की ओर कनखियों से देखा | बोला कुछ नहीं, फिर फेंकी । इस बार भी आमों से नहीं टकरायी।
अब सुंदरी ने कहा, “ हमोरी गली के बनना का निशाना देखा है? वो होता तो एक
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बार में आम झट से नीचे आ जाता। इस मुए का न निशाना, न फिसाना ।” फिर उसने
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कहा, “चल री.... चल। बकरी की टांग से कभी खला' का काम हुआ है?”
अपन्नी ने हंसते हुए 'हां' भरी। जाते जाते मुंह फेरकर बोली, “खूब, बहुत आम खाये, सेवती जीजी! मैं बेहया... मेरे जैसी कोई और भी है?” ।
बात की धार लोचन की छाती चीर गयी। अब वह और काबू न कर सका। गुस्से में बोला, “जा... जा अपने बनना खसम के पास! वही तोड़ देगा तुझे आम। कहने को आ रहा है मन मुंह में.... ।” क्
सुंदरी ने मुढकर देखा । बात लग गयी। मगर लोचन के साथ कलह करने की हिम्मत ने उसका साथ नहीं दिया। सुंदरी को ऐसी दशा में देख अपन्नी उसका पक्ष लेकर जोरदार आवाज में बोली--“क्या बोला, रे मरदूद? खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे | ठीक है, तू गली में चल | तेरा दिमाग ठिकाने लगा दूंगी मैं ।” गुस्से में सुंददी को खींचती, दमदमाती ले गयी।
अमराई में सुंदरी के साथ लोचन की फिर भेंट गुई। मगर एक-दूसरे से कोई बोला नहीं। सुंदरी की आंखों से आंख मिलते ही लोचन ने अनदेखी कर नजर नीची कर ली। सुंदरी ने भी मुंह मोड़ लिया। दमकती, अनदेखी कर दूसरी ओर चली गयी।
सांझ ढलने पर हवा के संग पका धान समेटती सुंदरी फिर उधर से लौट आयी । लोचन भी सुंदरी को देखकर जोर से टीन बजाने लगा। ऐसा लगा मानो वह काम में बहुत व्यस्त है। रास्ते पर दोनों फिर आमने-सामने पड़ गये। राह छोड़ दूसरी तरफ चल पड़े । जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, दूरी ही बढ़ती गयी, कम नहीं हुई।
इसी बीच लोचन ने कई बार सोचा-सुंदरी को आवाज दूं, सिर छूकर सौगंध दूं कि कभी नहीं रुठेंगे हम... मगर ना... नहीं-जुबान से बात निकलती ही नहीं, गले तक आकर लौट जाती है वापस।
मैं, छि: छि:! इस जरा सी छोकरी के आगे सिर नवाऊं?
खैर, शुरू शुरू में दोनों एक-दूसरे पर जैसे गुस्से हुए थे, अब मन में वैसी, उतनी गरमी नहीं रही । बात का फेसला करने को दोनों व्याकुल थे। मगर पहले कौन बोले? कैसे बात शुरू करें? यही तो है मुश्किल | लेकिन सुंदरी ख़ुशमिजाज इन दिनों वह लोचन के सामने पड़ने पर थोड़ा मुड़कर छुपे छुपे मुस्कुरा लेती, या फिर आंखों में कुछ गिर गया है-इस बहाने पल्लू में मुंह ढांपकर होठों की हंसी दबा लेती।
कभी बस्ती में वन-भोजन होता या भागवत गोसांई की पूजा समाप्त होती दोनों को एक साथ रहने की जरूरत पड़ती तो किसी को बिचौलिया रख लेते। लेकिन बोल जाने के बाद लाज से जीभ दांतों से दबानी पड़ती उसे।
धान कटाई के बाद खेत की पूजा होती है। उस दिन सब मिलकर खूब जोरदार रसोई पकाते, चूल्हा लगाकर भात पकाने का भार होता सुंदरी पर। “गीली लकड़ी न जलती तो
-3. खलिहान।
मृत कुंई ह ]]
वह लोचन को सुनाकर कहती- ““मुई लकड़ी भी नहीं सुलगती, कोई जरा सा फूस पकड़ा दो।
इतने लोग हैं, मगर लोचन जाकर फूस के दो-चार पूले ले आता। उन्हें सुंदरी के आगे फेंककर पेड़-पौधों से पूछने की तरह कहता, “और क्या चाहिए?”
सुंदरी को एक मटका पानी चाहिए। अपन्नी को उस की ओर धकेलकर कहती, “बोलना, मटका भर पानी ले आये कोई। मैं भात उतार रही हूं।
इसी तरह दिन, प्रखवाड़े, माह और एक बरस बीत गया-दोनों में से कोई दूसरे से नहीं बोल पाया। सोचकर रह जाते। हालांकि इसी बीच लोचन ने सुंदरी से बातचीत के लिए उसके मौसेरे भाई बिकला की खुशामद की थी। मगर बिकला ने बात खोल दी और लोचन के साथ के लड़कों ने चिढ़ाना शुरू कर दिया तब से लोचन ने कभी ऐसी जग-हंसाई वाला काम नहीं किया, फिर दुबारा।
खुदरक॒णी' की पूजा का पर्व बहुत बड़ा पर्व है। बस्ती की छोरियों के मुंह पर हंसी ही नहीं थी। हर बरस सुंदरी वगैरह के लिए देवी की. छोटी सी मूर्तियां बनाते समय लोचन की सहायता ली जाती थी। मगर इस वरस लोचन जान-बूझकर दूर दूर फिरता रहा। उससे हरताल, खड़ी, सुनहले कागज आदि लाने के लिए कहलवाया। लोचन वे चीजें लाया भी मगर हाट से लाकर उसने किसी और के हाथ उनके पास भिजवा दीं। इस बार उसके चेहरे पर और वरसों जैसी मुसकान, रौनक या उत्साह नहीं है।
इस बरस खुदरक॒णी के पर्व पर पता नहीं क्यों, लोचन का मन बहुत खराब रहा। इस बार देवी-पूजन कर लड़कियों के नये पोखर से लौटने के बाद, लोचन जाकर घड़ी भर पोखर के घाट पर बरगद के तले गुमसुम बैठा रहा। याद है, हर बरस इसी दिन विसर्जन के समय सुंदरी कैसे उसकी मदद मांगा करती थी। इस बरस मूर्तियों को पोखर के बीच तक धकेल देने के लिए सुंदगी और उसकी सहेलियां उससे अनुरोध करती थीं। लोचन पानी में आधा तैरकर हाथ-पांव पटक जैसे-तैसे सबसे आगे तैरकर अपनी बहादुरी दिखाता । इतना ही नहीं, पूजा के पहले सुंदरी उसे पोखर से कुंई के सारे फूल तोड़ लाने के लिए दो दिन पहले से ताकीद कर देती थी। कहीं दूसरी बस्ती के छोकरे पहले उठकर फूल न ले जायें, इसलिए लोचन को वह रात बीतते-न बीतते नींद से जगाकर तड़के ही पोखर की ओर भेज देती। और तुरंत खुद उस के पीछे पीछे एक खूब बड़ी डलिया लेकर निकल पड़ती।
पुरानी बातें याद करके लोचन के मन में न जाने कैसी हलचल मच उठी । पोखर के पानी पर तैरते हुए विसर्जित फूलों को अपलक निहारता रहा।
पोखर के नीले पानी पर एक जली दिहूटी' को साथ लिये पिछले बरस का फूलों का
]. एक देवी, जिसकी पूजा क्वांरी लड़कियां करती हैं। 9. दीप
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गुच्छा बना बेड़ा तैर रहा था। चीकट मिले चिकने पानी पर एक बुझी दिहूटी की छाया नाच रही थी। लोचन उधर देखता खोज रहा है अपने जीवन के उलझे धागे में खोया हुआ एक छोर।
कल पूजा की आखिरी पारी है। पूजा का समापन होगा। भोर का तारा उगकर बुझ चुका है। कांटों की ता पर, हरे पत्तों पर, चांदनी फीकी पड़ने लगी है। चारों ओर भोर का उजाला फैलने लगा है।
पोखर के किनारे पर ही सुंदरी अपने छोटे भाई बुरुदा को लिये नहा रही थी। संगिनी-साथिनें नहा-धोकर जा चुकी हैं, उसे चूड़ियों को रगड़ते रगड़ते देर हो गयी । सुंदरी को देख वह बरगद की जटा पकड़कर रुक गया। वह घाट पर नहा रही थी। लोचन उधर से बटाई वाले खेत पर जा रहा था। सुंदरी की देह पर गीली साड़ी चिपककर, उस पर अधबुझे चांद की उजास में कुछ कुछ धुंधली सी दिख रही है। पास बैठा है बुरुंदा।
पोखर में खिले हैं बेशुमार कुई के फूल--लाल, नीले, सफेद | तरह तरह के रंग की पोशाक